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- (गीता जयंती 3 दिसंबर पर विशेष)
मासश्रेष्ठ मार्ग शीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को श्रीमद् भगवत गीता का जन्मदिन माना जाता है। इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इसका उपदेश दिया जो उन्होंने कहा, उसी को संकलित करके श्री मद्भागवत गीता की रचना की। ऐसा माना जाता है इस एकादशी को भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उसके कर्तव्य का बोध कराने के लिए गीता को संक्षेप में सुनाया था। एकादशी होने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अधिकांश मनुष्य श्रीमद् गीता के प्रभाव से परिचय से अभी अछूते हैं। अतः श्रीमद् गीता के बारे में जानकारियां करें…..देखते हैं…….”मैं कौन हूं?” “आत्मा क्या है?”

“क्या देह के साथ मेरा कोई आदि अंत है?” देहत्याग के बाद क्या मेरा अस्तित्व रहेगा?” “देह त्याग के बाद मुझे अंततः कहां जाना होगा?”…..आदि-आदि प्रश्न जिज्ञासा के रूप में, एक समस्या के रूप में जनसाधारण के मन में भी घूमते रहते हैं। इन सब प्रश्नों का उत्तर गीता में अर्जुन के माध्यम से पूछा गया है और समाधान स्वयं भगवान कृष्ण ने अर्जुन के रूप में समग्र मानव जाति को समझाया है। देह में स्थित और देह त्याग कर जाते, जीवात्मा की गति का यथार्थ में वैज्ञानिक, तर्कसंगत वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में हुआ है।
देह त्याग कर जीवात्मा अपने कर्मानुसार विविध योनियों में विचरण करते हुए यह जान पाता है कि आत्मा अक्षय ज्ञान का स्रोत है। ज्ञान शक्ति से क्रियाशक्ति का उदय होता है, तब प्रकृति का जन्म होता है। प्रकृति के तीन गुण सत, रज और तम का निर्माण होता है। सत और रज की अधिकता धर्म का कारण बनती है। वहीं रज और तम की अधिकता आसुरी शक्ति को पैदा करती है। गीता का सार यही है कि “तुम संसार के कर्म को अपने स्वभाव अनुरूप करते हुए चलो। स्वभाव गत कर्म करना सरल है, जबकि दूसरे के स्वभाव अनुरूप कर्म करना जटिल है। जो जिस प्रकृति को लेकर जन्मा है उसकी प्रकृति के अनुरूप उसका जीवन सरल होता है।” गीता की योगपद्धति शाश्वत है चिरसनातन है। पूर्व में भी यह सूर्य देव को सुनाई गयी थी। उनके पश्चात मनु को मनुके पश्चात इक्ष्वाकु को और फिर गुरु शिष्य परम्परा से यह योग पद्धति चलती रही। कालांतर में इसका लोप हो जाने पर स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने यह ज्ञान अपने सखा, अपने भक्त, अपने शिष्य अर्जुन को सुनाया।
भगवत गीता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को भौतिक संसार के अज्ञान से उबारना है। एक व्यक्ति अनेक प्रकार की कठिनाइयों से घिरा रहता है। उनसे निकलने के लिए छटपटाता रहता है। किसी मार्गदर्शन की इच्छा रखता है। ठीक उसी प्रकार अर्जुन के समक्ष भी युद्ध कठिनाई का ही रूप था। परन्तु अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण का आश्रय लिया और भागवत ज्ञान के रूप में कठिनाई का समाधान भी पाया। आज हर मनुष्य में अर्जुन विद्यमान है और वह भौतिक त्रासों से चिंतित हैं। इस प्रकार के अनेक सुझाव अनेक हल, हमें श्रीमद् भागवत गीता के द्वारा प्राप्त हो जाते हैं। गीता भक्तों, ज्ञानियों, ध्यानियों और योगियों को कर्त्तव्य कर्म से छूट नहीं देती, बल्कि साधु और साधक स्वयं को तनिक भी श्रेष्ठ मानते हैं तो उन्हें समझ लेना चाहिए उनके जिम्मेदारी जनसाधारण से अधिक है। श्रेष्ठ जनों का आचार विचार सबके लिए अनुकरणीय होता है। गीता में कर्तव्य पालन पर बहुत जोर दिया गया है ।लोक कल्याण तथा लोक संग्रह दुष्टदमन तथा सेवा कार्य यह सभी ईश्वर की आराधना है। परमात्मा तथा मोक्ष की प्राप्ति करने में सहायक है ईश्वर की पूजा तथा सेवा दोनों का मिश्रण संतुलित होना चाहिए। तभी भगवान श्री कृष्ण ने” मामनुस्मर युद्धय च….” मुझे याद करता रह और युद्ध भी कर !
वस्तुतः गीता का ज्ञान एक योग ही है इसमें भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्मयोग एवं बुद्धि योग आदि का समन्वय है। परंतु यदि सभी योगों को भगवान कृष्ण को अर्पण कर दें और स्वम को कर्तापन से हटा ले तो वहीं निष्काम कर्मयोग बन जाता है। भारत वर्ष की तो पहचान स्वरुप श्रीमद्भगवद्गीता आज विश्व भर के अनेक देशों में विधि विधान के साथ पड़ी और समझी जाती है। अभी कुछ दिन पहले कुछ समाचार संस्थाओं के द्वारा ज्ञात हुआ कि इटली में श्रीमद् गीता को एक विशेष रुप देकर अनोखा सम्मान दिया गया है। बताते हैं इस गीता का आकार 2 गुणा 7 मीटर तथा भार लगभग 800 किलो ग्राम है इसे बनाने में कुछ करोड़ की राशि से इसे बनाया गया है। वास्तव में यह एकमात्र एक ग्रंथ है जिसकी जयंती मनाई जाती है। गीता अज्ञान, दुख, मोह, क्रोध, लोभ, काम जैसी सांसारिक बाधाओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। इसके पठन पाठन से, मनन चिंतन से जीवन में श्रेष्ठता का भाव आता है। प्रत्येक वर्ष गीता जयंती के पर्व पर सभी गीता प्रेमियों को आनंदित होना चाहिए। इस दिन गीता का अध्ययन, गीता का श्रवण, सामर्थ अनुसार गीता का वितरण भी करना चाहिए। गीता विचार गोष्ठी, गीता वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करना चाहिए और संभव हो तो गीता का पूजन एवं पठन पाठन का संकल्प भी लेना चाहिए।
-नरेंद्र कुमार शर्मा, राष्ट्र पुरस्कृत शिक्षक