लिव इन रिलेशनशिप: इस अमर्यादित परम्परा को हतोत्साहित कीजिए

 

 

@ डॉ दिनेश चंद्र सिंह/आईएएस

आधुनिक दिलोदिमाग के लोगों द्वारा लिव इन रिलेशनशिप को चाहे कितना भी व्यवहारिक करार दिया जाए और इसे कानूनी अमलीजामा पहनाने के यत्न किये जाएं, लेकिन यदि आप तन और मन से भारतीय हैं तो इस अनैतिक और अमर्यादित परम्परा को हतोत्साहित करने की जरूरत है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि ऐसे सम्बन्धों से जहां एक ओर प्रतिबंधित गर्भपात की विकृत मनोदशा को चोरी-छिपे बढ़ावा मिलता है, वहीं दूसरी ओर यदि संतान हो भी जाये तो उसे लेकर हमारा समाज तरह-तरह के किन्तु-परन्तु करता आया है और करता रहता है।

कोढ़ में खाज यह कि यदि ऐसे आवासीय सह-सम्बन्ध किसी विदेशी या आपराधिक प्रवृत्ति के युवकों-युवतियों के साथ या उनके बीच बन जाएं, तो उससे उतपन्न होने वाली लक्षित घटनाओं की तह तक पहुंचना राष्ट्रीय या प्रादेशिक सुरक्षा जांच एजेंसियों के लिए भी टेढ़ी खीर साबित होती है। कई बार तो ऐसे रिश्ते और उनके लक्षित दुरुपयोग से स्थितियां इतनी मुश्किल भरी हो जाती हैं कि उससे राष्ट्रीय हित व सुरक्षा दोनों प्रभावित होते हैं। वहीं, आज समाज में लव जिहाद के जो खतरे बढ़े हैं, उस नजरिये से भी लिव इन रिलेशनशिप को हतोत्साहित करने की जरूरत है।

यदि हम अपने इतिहास को टटोलेंगे तो पाएंगे कि महाभारत काल में दानवीर कर्ण के साथ प्रारब्धवश जो घटित हुआ, वह दैवीय संयोग  ही था। आप कल्पना कर सकते हैं कि जब तत्कालीन नैतिक समाज में महावीर कर्ण को उतनी परेशानियां और मनोदुविधा झेलनी पड़ी, तो समकालीन पतनोन्मुख समाज के ऐसे तुलनात्मक पात्रों को किस अधोगति से गुजरना पड़ेगा, इसकी महज कल्पना की जा सकती है। ऐसी संतति यानी महान योद्धा कर्ण की निम्नलिखित उक्ति बहुत कुछ उद्घाटित कर देती है-
“मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग, किंतु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई, कहीं न अपना होगा,
मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कल्पना होगा।”

जब मैंने उपरोक्त अंश को पढ़ा तो मन व्यथित हुआ। ख्याल आया कि जो लोग लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा दे रहे हैं, दिलवा रहे हैं, जाने अनजाने वो हजारों-लाखों लोगों को समकालीन कर्ण की वेदना झेलने के लिए अभिशप्त कर रहे हैं। खासकर आधुनिक युग की उन युवतियों एवं युवाओं के बारे में, जो वैज्ञानिक उपलब्धियों एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए लक्षित शिखर तक पहुंचने की कल्पना करते हैं और साध्य तक पहुंचने के लिए लिव इन रिलेशनशिप जैसे साधनों का इश्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं करते। इससे भारतीय सामाजिक मर्यादा भी खंडित होती है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि शिखर पर पहुंचने की उनकी कामना यद्यपि कंटकाकीर्ण मार्ग, दुर्गम पगडंडियों और असाधारण रास्तों से होकर गुजरती है। आधुनिक युग के कारण और वर्तमान में असाधारण व्यक्तित्व के धनी भारतीय लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर आसीन रहे माननीय प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी की परंपरा के अग्रणी हस्ताक्षर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के कुशल नेतृत्व के कारण स्थिति एक हद तक सुधरी है।वर्तमान में भारत के कोने-कोने में कंटकाकीर्ण मार्ग की कल्पना को तोड़ते हुए माननीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी जी के नेतृत्व में दुर्गम्य क्षेत्र में भी सड़कों का जाल बिछा हुआ है, जिसने यात्रा को सुगम किया।

परन्तु मन की कंटकाकीर्ण यात्रा के सहयात्री लाखों-करोड़ों युवाओं यानी उन सभी युवकों एवं युवतियों की ऊंची उड़ान, जो चंद कुछ समय में ही अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने की होड़ में “लिव इन रिलेशनशिप” के खूंटे से बंध जाते हैं। और फिर एक समय के बाद यानी काम वासना की पूर्ति हो जाने के बाद इससे भी निजात पाने के लिए कुछ भी अनैतिक कार्य करने से गुरेज नहीं करते हैं, जिससे मौजूदा समाज भी यदा-कदा दहशतजदा हो जाता है। मीडिया माध्यम भी इसे बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि कोई इस अनर्लगल परम्परा को बढ़ाने का हिमायती है तो कोई घटाने यानी हतोत्साहित करने का पक्षधर।

बता दें कि लिव इन रिलेशनशिप पश्चिमी सभ्यता का वह शब्द एवं वाक्य है जहां न कोई मर्यादा है और न ही किसी सांस्कृतिक विरासत की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने की कवायद है। इसलिए ऐसे जघन्य अपराध होते हैं जिनकी पड़ताल के लिए केंद्रीय एवं राज्य जांच एजेंसियां भी सघन जांच के बाद ऐसे नतीजे पर पहुंचती हैं, जहां बिना परिश्रम और उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक गतिविधियों की कठिन साधना के बिना मात्र कुछ समय में ही शारीरिक शोषण की सहमति पा लेने की अकल्पनीय यात्रा की शुरुआत हो जाती है।

ऐसे में मात्र शारीरिक आकर्षण अथवा तीव्र गति की अति महत्वाकांक्षा या यशस्वी बनने की यात्रा को अपने माता-पिता की सहमति के बिना “लिव इन रिलेशनशिप” की छोटी यात्रा में अजनबियों, अनजान एवं बेमेल युवक-युवतियों की गठजोड़ के परिणाम स्वरूप कुछ समय की खुशी में अपना पूरा जीवन बर्बाद कर देते/देती हैं। फिर किसी अनकही आवाज में संताप और आक्रोश के कारण बिना किसी ऐतिहासिक उपलब्धि के मृत्यु का वरण कर अपना और अपने उन माता-पिता की आकांक्षाओं की होली जलाकर मात्र मीडिया की सुर्खियां एक सप्ताह के लिए बन जाती हैं। जिसका लाभ सभी राजनैतिक दल अपने अद्भुत सियासी कला शैली एवं अपने राजनैतिक लाभ के लिए आवश्यकता के अनुरूप चर्चा कर प्रकरण को गम्भीर बनाकर समाप्त कर देते हैं।

मेरे कहने एवं उपरोक्त बातें लिखने के पीछे का निहित उद्देश्य यही है कि अब भी ऐसे लोग सम्भल जाएं। खुद से कुछ सवाल करें और अपनों से उसका जवाब तलाशें। फिर काल के अनुरूप काल से प्रेरणा लें और काल के अनुरूप निर्णय लेकर “लिव इन रिलेशनशिप” की अनैतिक परम्परा को ठुकरा दें। भारत जैसे मनीषियों और तपस्वी लोगों की भूमि में हमारे युवक एवं युवतियां ऐसी ओछी और सतही विचारधारा को कतई आत्मसात न करें। क्योंकि महाभारत में महायोद्धा, पराक्रमी, दानवीर कर्ण का जन्म “लिव इन रिलेशनशिप” की अमर्यादित परम्परा में नहीं हुआ था, बल्कि वह एक दैवीय संयोग था। जो माता कुंती एवं कर्ण दोनों के जीवन की मार्मिक यात्रा का ऐसा दैवीय संयोग था, यदि यह न होता तो महाभारत की कहानी अधूरी होती। और क्षत्रिय पुत्र कर्ण होते हुए भी अछूत यानी सूत पुत्र मतलब ऐसे वर्ग के प्रतीक के रूप में अपना महत्व सिद्ध न करता, जिससे अपने मित्र की रक्षा के लिए और भाइयों की प्राण रक्षा के लिए चुपके-चुपके त्याग और बलिदान की एक ऐसी मिशाल कायम की, जिसके लिए भगवान श्रीकृष्ण भी स्वयं कर्ण की मृत्यु पर रोए और उन्हें भी अभिशप्त होना पड़ा अपनी अकाल मृत्यु के लिए।

अतः हमारे देश की युवा पीढ़ी छोड़े यह अमर्यादित परम्परा, जिसको अंग्रेजी में “लिव इन रिलेशनशिप” कहते हैं। अन्यथा न जाने कितने युवा-युवतियों को उत्कर्ष के शिखर पर पहुंचने की अपनी नैसर्गिक क्षमता के बावजूद भी वह हासिल नहीं हो पाएगी। वे देश-काल-पात्र के अनुसार या काल से प्रेरणा न लेकर या फिर कर्म निर्णय के अभाव में कभी अधर्म की आंच में, तो कभी हिजाब के कसाव में और कभी लव जिहाद की अंधी भावनाओं की आंधी में अपना जीवन बर्बाद कर देते हैं। वहीं अपने पीछे अपनी माता-पिता और भाई-बहनों को रोते-बिलखते छोड़कर मीडिया की सुर्खियां चंद दिनों के लिए बनकर अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बाद भी सदैव यानी सदा सदा के लिए काल ग्रसित होकर समाप्त हो जाएगी।

मेरी राय में इससे बचने का एक ही समाधान है, वह है भारतीय संस्कृति पर आधारित अपनी पहचान को बचाकर सदा से प्रचलित एवं आत्मसात भारतीय संस्कृति के अनुरूप समयानुसार वैवाहिक बन्धन में बंधकर साथ रहने की संस्कृति अपनाएं। ऐसा नहीं कि वैवाहिक बंधन की इस व्यवस्था में दोष नहीं है, परन्तु “लिव इन रिलेशनशिप” की अमर्यादित संस्कृति से उतपन्न संतति की तुलना में बहुत कम है। इसलिए आओ मिलकर एक ऐसा भारत बनाएं जहां अमर्यादा और असभ्य आचरण के लिए कोई जगह ही न हो। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी की मर्यादा के अनुरूप भारत वासी हों, यही मेरा भाव है। यही होगा, आज नहीं तो कल होगा।

वहीं, जो लोग लिव इन रिलेशनशिप को मित्रतापूर्ण व्यवहार बताते हुए नहीं थकते हैं, उन्हें मित्रता के सही प्रसंग को समझाने के लिए यहां पर कृष्ण-कर्ण संवाद का उल्लेख करना चाहूंगा। महाभारत में कर्ण ने भगवान कृष्ण से पूछा- “मेरी मां ने मुझे जन्म दिया था। क्या यह मेरी गलती है कि मैं एक अवैध बच्चा पैदा हुआ था? मुझे द्रोणाचार्य से शिक्षा नहीं मिली क्योंकि मुझे क्षत्रिय नहीं माना गया था। परशुराम ने मुझे सिखाया लेकिन फिर मुझे सबकुछ भूलने का अभिशाप दिया जब उसे पता चला कि मैं क्षत्रिय कुंती का पुत्र हूँ। एक गाय को गलती से मेरा तीर लग गया और उसके मालिक ने मुझे मेरी गलती के बिना श्राप दिया। मैं द्रौपदी के स्वयंवर में अपमानित था। यहां तक कि कुंती ने अंततः मुझे अपने अन्य बेटों को बचाने के लिए सच्चाई भी बताया। जो भी मैं प्राप्त किया दुर्योधन के दान के माध्यम से किया। तो मैं उनका पक्ष लेने में गलत कैसे हूं! ”

तब भगवान कृष्ण ने जवाब दिया, “कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मृत्यु मेरे जन्म से पहले ही मेरे लिए इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ था, मैं अपने जन्म देने वाले माता-पिता से अलग हो गया था। बचपन से, आप तलवारों, रथों, घोड़े, धनुष, और तीर के शोर को सुनकर बड़े हुए। मुझे केवल गौ के समूह के गोशाला, गोबर मिला और मेरे जीवन पर कई प्रयास किए मेरे स्वयं से चलने से पहले! कोई सेना नहीं, कोई शिक्षा नहीं। मैं सुनता था लोग कहते थे कि मैं उनकी सभी समस्याओं का कारण हूं। जब आप सबको आपके शिक्षकों द्वारा आपके बहादुरी के लिए आपकी सराहना की जा रही थी, तो मुझे कोई शिक्षा भी नहीं मिली थी। मैं 16 साल की उम्र में ऋषि संदीपनी के गुरुकुल में शामिल हो गया! मुझे अपने पूरे समुदाय को यमुना के तट से जरासंध से बचाने के लिए बहुत दूर समुद्र तट पर ले जाना पड़ा। मुझे भागने के लिए रणछोड़ कहा जाता था। यदि दुर्योधन युद्ध जीतता है तो आपको बहुत अधिक श्रेय मिलेगा। धर्मराज के युद्ध जीतने पर मुझे क्या मिलेगा? युद्ध के लिए केवल दोष।

पुनः श्रीकृष्ण आगे कहते हैं- कर्ण एक बात याद रखो। सभी को जीवन में चुनौतियां हैं। जीवन किसी भी तरह से निष्पक्ष और आसान नहीं है। लेकिन सही (धर्म) आपके मन (विवेक) को जानकारी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमें कितना अनुचितता मिली, कितनी बार हम अपमानित हुए, कितनी बार हम गिरते हैं, महत्वपूर्ण बात यह है कि उस समय आप कैसे प्रतिक्रिया किए। आप मानो या न मानो, जीवन की अनुचितता आपको गलत रास्ते पर चलने का अधिकार नहीं देती है। हमेशा याद रखें, जीवन कुछ बिंदुओं पर कठिन हो सकता है, लेकिन भाग्य हमारे पद संघर्ष द्वारा नहीं बनाया जाता है बल्कि हमारे द्वारा उठाए गए कदमों द्वारा ही बनाया जा सकता है।”

राष्ट्रकवि दिनकर ने अपनी कालजयी रचना रश्मिरथी में कर्ण-कृष्ण संवाद को काव्य शैली प्रदान करते हुए लिखा है कि- “सम्राट् बनेंगे धर्मराज, या पायेगा कुरुराज ताज; लड़ना भर मेरा काम रहा, दुर्योधन का संग्राम रहा। मुझको न कहीं कुछ पाना है, केवल ऋण मात्र चुकाना है।…. “कुरु राज्य चाहता मैं कब हूँ? साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? क्या नहीं आपने भी जाना? मुझको न आज तक पहचाना? जीवन का मूल समझता हूँ, धन को मैं धूल समझता हूँ।….”धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं, भुजबल से कर संसार-विजय, अगणित समृद्धियों का संचय, दे दिया मित्र दुर्योधन को, तृष्णा छू भी न सकी मन को।….
“वैभव-विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं, बस, यही चाहता हूँ केवल, दान की देव-सरिता निर्मल, करतल से झरती रहे सदा, निर्धन को भरती रहे सदा!…..”अब देर नहीं कीजै केशव! अवसेर नहीं कीजै केशव! धनु की डोरी तन जाने दें, संग्राम तुरत ठन जाने दें। ताण्डवी तेज लहरायेगा,
संसार ज्योति कुछ पायेगा।….”पर एक विनय है मधुसूदन!
मेरी यह जन्म कथा गोपन, मत कभी युधिष्ठिर से कहिये,
जैसे हो, इसे दबा रहिये। वे इसे जान यदि पायेंगे, सिंघासन को ठुकरायेंगे।…..”साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, सारी सम्पत्ति मुझे देंगे, मैं भी न उसे रख पाऊँगा, दुर्योधन को दे जाऊँगा। पाण्डव वंचित रह जायेंगे, दुःख से न छूट वे पायेंगे।……”अच्छा, अब चला, प्रणाम आर्य! हों सिद्ध समर के शीघ्र कार्य। रण में ही अब दर्शन होगा, शर से चरण-स्पर्शन होगा। जय हो, दिनेश नभ में विहरें। भूतल में दिव्य प्रकाश भरें।”

इसलिए मेरा सिर्फ इतना निवेदन है कि मित्रता जैसे पवित्र शब्द को “लिव इन रिलेशनशिप” से कतई न जोड़ें। क्योंकि दोनों के उद्देश्य और आचरण भिन्न भिन्न हैं, जो भारतीय सभ्यता व संस्कृति में कभी वरेण्य नहीं हो सकते हैं।

(लेखक उत्तरप्रदेश के बहराइच जनपद के जिलाधिकारी हैं।)

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