सामाजिक लेख
आज के समाज में जहां संयुक्त परिवार बहुत कम होते जा रहे हैं। वहीं एकल परिवार का चलन खूब बढ़ा है। इसके पक्ष और विपक्ष में तमाम तरह के तर्क हो सकते हैं।लेकिन इसमें कोई विवाद नहीं हो सकता कि आज पारिवारिक जीवन में लोगों की संवेदनशीलता कम हुई है। आज जागरूकता बढ़ गयी है तो लोगों ने परिवार को बहुत सीमित भी कर दिया है। आज कल लोग बस एक दो बच्चों की ही चाहत रखते हैं। सही भी है आज उनकी परवरिश पढ़ाई लिखाई आगे चलकर अच्छी शादी का बहुत दबाव होता है। आज पति पत्नी दोनों के नौकरी करने का चलन भी खूब बढ़ा है। क्योंकि आदमी की अपनी महत्वाकांक्षा तो है ही। उसके लिए धन भी बहुत आवश्यक है। ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं हैं।इन सबके बीच जो सबसे ज्यादा नुक्सान हो रहा है वह बच्चों की परवरिश है। बच्चों को न तो दादा दादी न ही नाना नानी का ही सानिध्य मिल पा रहा है। जिससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है। बच्चों के हाथ में हम मोबाइल देकर उन्हें चुप करा देते हैं।या फिर टीवी में कार्टून लगा देते हैं। यह सब कहीं न कहीं बच्चों का सामाजिक विकास प्रभावित कर रहा है। वह जब समाज से दूर है तो उसकी सामाजिकता का संवेदनशील भावनाओं का विकास कैसे होगा? बच्चे बचपन में जैसा देख रहे हैं उसी की नकल कर वह अत्यधिक क्रोधी, हिंसक व जिद्दी बन रहे हैं। वहीं आदत बड़े होकर भी बनी रहती है। अपने आस पास जैसे वातावरण में वह पल बढ़ रहे हैं उसी वातावरण के आदी भी होते जा रहे हैं।इस पृथ्वी पर मानव एक बौद्धिक प्राणी है।वह समाज में रहता है और समाज के सुख दुःख अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों से प्रभावित होता है।मानव और पशु में अंतर यह है कि मानव ज्ञेय, हेय और उपादेय को जानता है। किन्तु पशु में बुद्धि नहीं होती। इसलिये वह इन तत्वों को नहीं जानता। मानव और पशु में इन्द्रियां समान है। किन्तु बौद्धिकता ही एक ऐसा तत्व है जो मानव और पशु में अंतर करता है। हम सब आज देख रहें हैं कि यदि किसी परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ जाता है और कभी उसे रक्त की आवश्यकता होती है तो घर परिवार और रिश्तेदार भी उसे रक्त देने से बचते हैं या बहाने बनाने लगते हैं। समस्या गिनाने लगते हैं। यह वही परिवार व रिश्तेदार होते हैं जिनकी सभी को शादी विवाह निमंत्रण नेग चार में हम सबको बहुत चिंता लगी रहती है।वहीं सब जरूरत में कैसे मुंह मोड़ लेते हैं। फिर तलाश होती है कोई बाहर से आकर रक्त दे देता तो बहुत अच्छा था। यही बात बीमारी अन्य तरह की दिक्कत या फिर बुढ़ापे में सेवा सत्कार की बात हो अधिकतर लोग इसे बोझ समझने लगे हैं और इससे बचना चाहते हैं।आखिर ऐसा क्यों है? यह जानते हुए भी जो आज इन सबका है वहीं कल हमारा भी होगा। फिर भी ऐसी भावना का विकास कैसे हो रहा है। हम क्यों ऐसे होते जा रहे हैं?परस्परोपग्रहोजीवानाम्“ से लेकर ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त ही मानवीय मूल्य की मुख्य धुरी है, जिसमें मानवीय मूल्यों का पर्याप्त पोषण किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य है इसी जीवन में मानव का कल्याण। आचार शुद्धि, व्यवहार शुद्धि और विचार शुद्धि के आधार पर मनुष्य मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सकता है। मानव स्वभावतः विवेकशील है। विवेकशीलता का अभिप्राय है प्रत्येक व्यक्ति विचार करता है, तर्क करता है और विभिन्न घटनाओं में कार्य-कारण का संबंध ढूढ़ता है।मनुष्य विवेकशील होने के कारण उसका स्वभाव नैतिक भी होता है, क्योंकि नैतिकता, विवेकजनित होती है।वास्तव में मनुष्य नैतिक इसलिए है, क्योंकि वह विवेकी है।
विवेकशील व्यक्ति ही यह सोच सकता है कि जो बात मुझे अच्छी या बुरी लगती है वह सभी व्यक्तियों को अच्छी या बुरी लगती होगी। इसलिए तदनुरूप हमें व्यवहार करना चाहिए। हमें आज इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि हम समाज में किस तरह मानवीय मूल्यों का पोषण कर सकते हैं। कैसे हम सामाजिक ताने-बाने को मजबूत कर सकते हैं। आने वाली युवा पीढ़ी बहुत समझदार बहुत जागरूक बहुत क्रियाशील हैं। लेकिन हम सबको और समर्पित होकर मानवीय मूल्यों चाहे वह मनुष्य हो जानवर हो पशु पक्षी हो या इस धरा के अन्य जीव जंतु हो के लिए अधिक जिम्मेदार होकर कार्य करना होगा।जिससे समाज में मानवतावाद पल्लवित पुष्पित होता रहे।
भारतेन्द्र कुमार त्रिपाठी
शिक्षक
*प्रयागराज*