भगवान राम परमतत्व हैं, परात्पर ब्रह्म हैं : मोरारी बापू

  • 22 जनवरी को घर-घर दीप जला दीपावली मनाएं।

गाजियाबाद। 22 जनवरी, 2024 के दिन ग्यारह और बारह बजे के बीच श्रीधाम अयोध्या में भगवान राम की दिव्य मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा होने वाली है। इस मंगल अवसर की आप सभी को, पूरे देश को और पूरी दुनिया को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामना। सभी को मेरा प्रणाम और जय सियाराम। मैं मोरारी बापू, मेरे छोटे से गांव तलगाजरडा में हनुमानजी के चरणों में बैठकर आपसे कुछ संवाद करना चाहता हूं।
सुबह से दोपहर तक कुछ घड़ियों में हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री के हाथों से प्राण प्रतिष्ठा होने वाली है। कई जगद्गुरु, कई महामंडलेश्वर, कई महापुरुष, कई महात्मा, साधु-संत, कितने लोग आयेंगे जिनकी उपस्थिति में रामजी मंदिर में राम भगवान की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा होने वाली है। एक साधु के नाते, रामकथा के गायक के नाते आप सबकी शुभकामनाओं से, मेरे सद्गुरु भगवान की कृपा से, साधु-संतों के आशीर्वाद से, लोगों के सद्भाव से जिस ‘रामचरितमानस’ की पोथी लेकर मैं दुनिया भर में घूमा हूं, घूम रहा हूं और भगवान जब तक बल दे, घूमता रहूंगा। उस ‘रामचरितमानस’ के आधार पर मैं आप से कहना चाहता हूं कि पांच सौ, साढ़े पांच सौ साल बीत गये; जिस दिव्यता के दर्शन के लिए हम आतुर थे, वो घड़ी करीब साढ़े पांच सौ साल के बाद आई है। भगवान राम सूर्यवंश में प्रगट हुए और हम जानते हैं खगोल के नियमों को कि सूर्य महानतम है।
हमारी जो ये गेलेक्सी है, ये आकाश गंगा है, ऐसी कई आकाश गंगाएं इस ब्रह्मांड में हैं लेकिन हमारी जो आकाश गंगा है उसमें जो भगवान सूर्य है, जो हमें जीवन दे रहा है; आप सब ये जानते हैं मेरे भारतवासी भाई-बहन, उसी सूर्यवंश में भगवान राम का अवतरण हुआ। सूर्यवंशी राम है लेकिन उस सूर्यवंशी को, उसके मंदिर को, उसकी महिमा को शताब्दियों पहले कई लोगों ने ग्रसित किया। जैसे सूर्यग्रहण होता है, कोई ऐसा ग्रह आता है उसको ग्रसित करता है। कुछ समय के बाद सूर्य भगवान ग्रहण से मुक्त होते हैं। फिर अपनी रोशनी वही की वही रूप में विश्व पर फैलाते हैं। इतिहास साक्षी है, मैं अभी अठहत्तर साल से गुज़र रहा हूं। सात दशकों का मैं भी साक्षी हूं। भगवान सूर्यवंश के हैं। अनेक-अनेक सूर्य उसके सामने मलिन दिखे ऐसा भगवान राम सूर्यों का सूर्य हैं। उस सूर्य के मंदिर को, उसकी मूर्ति को भी कई राहु तत्त्व ने समय-समय पर ग्रसने की कोशिश की, इतिहास गवाह है। और अंततोगत्वा सब ग्रहण मिट गया।
अब 22 तारीख को ये पल आई है, जहां भगवान राम विराजित होंगे। ‘रामायण’ के नाते, मेरा गांव चित्रकूट, हम तलगाजरडा के और मेरे ये मूल स्थान के नाते मैं भी सबका प्रतिनिधि बन करके 22 तारीख को वहां साक्षी बनने जा रहा हूं। अयोध्या की महिमा, सरजू की महिमा, भगवान राम और रामराज्य की महिमा अतुलनीय है, अकथनीय है।
मेरे भाई-बहन, मैं पहले भी दर्शन करने गया था, बीच में भी गया, कई बार गया हूं; उसका विकास, उसका विश्रामदायी उत्कर्ष मैंने मेरी तलगाजरडी आंखों से देखा है। अतीव प्रसन्नता से मैं आपसे निवेदन कर रहा हूं। मुझे कोई पूछे कि साढ़े पांच सौ साल के बाद ये घटना घट रही है। मैंने अभी कहा कि मैंने सात दायकें गंवाये हैं उम्र के, मैंने ऐसी घटना कभी देखी नहीं। किसी मंदिर में परमतत्त्व की प्रतिष्ठा हो और पृथ्वी पर रहे सनातन, शाश्वत, वैदिक धर्म का आश्रय लेकर आकाश से भी चौड़ा हिंदुत्व अपनी उदारता का दृष्टांत दे रहा है। दुनिया को इस शाश्वतता की छांव में ऐसा प्रसंग मैंने तो कभी देखा नहीं। होता है, सब मंदिरों में प्रसंग होता है अपने-अपने ढंग से लेकिन इस तरह जिसमें भारत का जन-जन जुड़ा है, घर-घर जुड़ा है, वैसा कभी नहीं देखा।
मंदिर के बारे में यदि आप मुझे पूछे तो मैं तीन शब्द कहना चाहता हूं। एक, उसका जो बहिर् रूप है कला की दृष्टि से; हमारे आदरणीय सोमपुरा चंद्रकांत भाई, जिसको मैं याद करूं; जिन्होंने तलगाजरडा के मंदिर की भी रचना करवाई; वो वहां के शिल्पी है। अद्भुत ! जब ये मंदिर बन रहा था, विवाद में था, हम सब प्रतीक्षा कर रहे थे कि अदालत का फैसला क्या आये और फिर आगे बढ़ें। हम अदालत को मानने वाले नागरिक है। और जो सत्य था वो सर्वोच्च अदालत ने भी उजागर किया। पूरी दुनिया प्रसन्न हुई और हम आज परिणाम का दृष्टा बनने जा रहे हैं। तो मैंने चंद्रकांत भाई को भी कहा था और उस समय जब नवनिर्माण की बात आई तब जिसने जिम्मेवारी ली थी उसको भी मैंने कहा था कि अब मंदिर का ऐसा प्लान बनाया जाय कि जो वैश्विक हो। स्पर्धा के लिए नहीं, लेकिन लोगों की यहां त्रिभुवनीय श्रद्धा जुड़ी हुई है। आज भी देहातों में जाओ तो लोग ‘राम राम’ कहकर स्वागत करते हैं और विदाई देते हैं। तो राम का मंदिर ऐसा हो। और कुछ परिवर्तन किया गया। सोमपुरा जी से भी मैंने बात की। मैं तो एक सामान्य साधु के नाते कह रहा था कि जब बन ही रहा है तो उसकी डिज़ाइन में कुछ परिवर्तन करना पड़े तो भी करना चाहिए। और मुझे संतोष है कि यह हुआ है। तो मैं आपसे निवेदन करूं कि उसका बहिर् रूप देखो, कला के रूप में; लोहे की कोई एक चीज़ भी नहीं है उसमें। अखबार में मैंने पढ़ा कि एक हज़ार साल तक की उसकी आयु कल्पी गई है। तो मेरी आंखों में ऊपर से वो भव्य है और अध्यात्म दृष्टि से मैं थोड़ा राम मंदिर के गर्भगृह की ओर गति करूं तो वो दिव्य है। सबको दिव्यता का अनुभव होगा। और इससे भी अंदर बिलकुल निज मंदिर, बाल राम और तीन स्वरूप हैं। उसमें से जो स्वरूप विद्वान लोग पसंद करे और उसकी प्रतिष्ठा होगी, वहां चरणों तक मैं जाऊं तो ये सेव्य है। हमारा यह राम मंदिर बहिर् रूप से भव्य है; थोड़ा अंदर जायें तो दिव्यता से भरा हुआ है, दिव्य है। और चरणों में ‘रामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये।’ यदि हम प्रवेश करें तो वह सेव्य भी है। तो मुझे लगता है कि यह भव्यता, यह दिव्यता और यह सेव्यता ये तीन परम पवित्र के संगम का नाम भगवान राम का वैश्विक मंदिर है।
कुछ लोगों ने उस समय राम के काल में जानकीजी की आलोचना की, राम की आलोचना की। उसको भी उदारचरित राम ने अपने लोक में स्थापित किया। हमारे तुलसीदास जी कहते हैं, ‘ऐसो को उदार जग मांही।’ राम के समान इस दुनिया में कौन उदार होगा ? तो ऐसे भगवान राम का मंदिर का पहला भाग, जहां प्रतिष्ठा होगी, जो पूर्णता की ओर है तब मैं पुनः एक बार इस सत्य, प्रेम और करुणा के यज्ञ में आहुति देने वाले जन-जन, ऊपर से लेकर आखिरी व्यक्ति तक इन सबको बहुत-बहुत साधुवाद देता हूं।
आओ, हम सब 22 तारीख को अपने घर में आज दीपावली है, अपने घर में आज अयोध्या है, ऐसा समझकर उस महोत्सव को मनायें। मुझे खबर नहीं कि आगे का आयोजन क्या है, लेकिन मैं एक विनय ये भी करूं कि व्यवस्था हो गई हो तो प्रणाम, बहुत-बहुत धन्यवाद। लेकिन यदि न हुई हो तो हमने मिलकर वाल्मीकि रामायण का नाथद्वारा में एक सुन्दर स्वरूप में संपादन करवाया है; चारों वेद का भी संपादन करवाया है। और ‘रामचरितमानस’ का भी बृहद् ग्रंथ में संपादन करवाया है। वहां आदरणीय चंपतरायजी ने, न्यास के आदरणीय सदस्यों ने योजना की ही होगी, उसका मुझे भरोसा है, लेकिन यदि न हुई हो तो एक साधु के नाते मैं ज़रूर प्रार्थना करूं कि नये राम-प्रसाद में, नये राम-मंदिर में यदि ऐसी जगह हो तो बीच में वेद भगवान की प्रस्थापना हो; एक ओर वाल्मीकि रामायण की प्रस्थापना हो और एक ओर ‘मानस’ की प्रस्थापना हो। ये तीनों की स्थापना हो। मुझे यकीन है कि ये सोचा गया होगा ही, लेकिन यदि न हुआ हो और यदि व्यवस्था करे, चाहे और ये बात ठीक लगे तो एक साधु का विनम्र विनय है कि आकाश के समान ये हमारे तीनों ग्रंथ है। जिस वाल्मीकि जी ने प्रथम अनुष्टुप जाति का छंद दिया। जिस वेद ने राम को ‘नेति नेति’ कहकर अपना मौन धारण कर लिया। और जिस ‘रामचरितमानस’ ने आज जन-जन के हृदय में घर-घर में और घट-घट में बिना कोई प्रयास, बिना कोई प्रचार, बिना कोई नेटवर्क बनाये, हरहृदय में, हर मानस में निवास किया; ये तीन परम ग्रंथ, परम शास्त्र, परम शाश्वत विचाधारा का भी वहां स्थापन हो।
भारत के एक नागरिक के रूप में, एक साधु के रूप में और रामकथा के गायक के रूप में ये भी मेरा एक विनय है। बाकी हम पूर्ण संतुष्ट हैं। जो हो रहा है, होनेवाला है; भूरीशः साधुवाद देते हुए, अयोध्या के संतों को प्रणाम करते हुए, हमारे देश के तमाम परम पूज्य आचार्यों को, महामंडलेश्वरों को, प्रसिद्ध अप्रसिद्ध तमाम साधु-संतों को, कार्यकरों को, सेवकों को; जिन-जिन ने केवल पैसे का नहीं लेकिन हृदय का दान दिया है इस शाश्वत मंदिर के लिए इन सभी को भी मैं प्रणाम करता हूं।
भारत को रामराज्य देने की उद्घोषणा करने वाले विश्ववंदनीय पल महात्मा गांधी ने भी भगवान राम की वंदना की और कहा कि मैं जो कुछ कर सका, मेरे जीवन की यात्रा में रामनाम की बड़ी महिमा रही है। साहब! उस राम की भूमि का बहुत महत्व है। शास्त्रों में लिखा है कि हमारे देश में अमुक नगरियां शतः मोक्षदायिका हैं। वहां रहना पर्याप्त है। साधन करो, न करो, जप-तप करो न करो, अपनी मौज। लेकिन उस भूमि में रहना, वहां के जल-वायु में रहना ही अपने आप मुक्ति प्रदाता है। ऐसी सात नगरी हमारी भारत भूमि में मोक्षदायिका मानी गई हैं। इसमें पहला नाम अयोध्या है। अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरीवती चैव सप्तैता मोक्षदायिका। तो अयोध्या में जो आदमी निवास करता है , उसको अपने आप मोक्ष मिलता है। मैं गवाह हूं। राम उपासना के नाते कई बार अयोध्या गया हूं। इस साल 24 फरवरी में फिर मैं जाने वाला हूं नव दिन के लिए।
साहब ! राम, यहां कुछ नहीं था तब भी थे। यहां सब कुछ है तब भी हैं और यहां जब प्रलय हो जायेगा, तब भी रहेंगे। कहते हैं, मन्वंतरों के बाद जब प्रलय होता है; अंधेरा और जल के सिवा कुछ नहीं बचता, ये जब-जब क्रमानुसार आता है तब भी तो कोई रहेगा तो ये रामतत्त्व ही रहेगा।
रामो विग्रहवान धर्म साधु सत्य पराक्रम।’ राम ब्रह्म है, निराकार है लेकिन आकार लेकर हमारी भूमि पर आकर, हमारे जैसा जीवन जीते-जीते भगवान राम परमात्मा ने हमें आदर्श बताया है। शास्त्रों ने कहा, राम क्या है? राम धार्मिक नहीं है, राम स्वयं धर्म है। ‘रामो विग्रहवान धर्म।’ पहला, धर्म क्या? राम; बस, बात खत्म हो गई। तो ‘रामो विग्रहवान…’ धर्म ने जब एक विग्रह धारण करने की इच्छा व्यक्त की तब धर्म, सनातन धर्म, वैदिक और शाश्वत धर्म भगवान राम के रूप में हमारी भारत की भूमि अयोध्या में प्रगट हुए। तो राम हैं साक्षात् धर्म-विग्रह। दूसरा, राम साधु हैं। मुझे अतीव आनंद होता है कि सर्व धर्ममय राम हैं और दूसरा उसका लक्षण है, ‘रामो विग्रहवान धर्म साधु…’ राम साधु हैं और साधु होना मेरी दृष्टि से सबसे ऊंची बात है। ‘राम साधु तुम्ह साधु सयाने।’ हमारे ‘मानस’ में भी लिखा है कि राम साधु हैं। तो भगवान राम जब हमारे लिए निजतंत्र निज रघुकुलमनि प्रगट हुए, वो है धर्म; राम है साधु। ‘रामो विग्रहवान धर्म साधु सत्य पराक्रम।’ राम है परम सत्य। ये तीसरा, राम के परिचय के लिए अनुभूत महापुरुषों ने जो अमृत वचन कहे, वो ये हैं। ‘रामो विग्रहवान धर्म साधु सत्य पराक्रम।’ राम पराक्रम के प्रतीक हैं। आप कल्पना कीजिए कि सत जोजन समुद्र, उसको सेतु बनाकर लांघना, ये बिना पराक्रम हो ही नहीं सकता। और ‘पराक्रम’ शब्द चौथे स्थान पर आया। पराक्रम कौन कर सकता है? जिसका जीवन धर्ममय है; जिसमें साधुता भरपूर है; जो परम सत्य का उपासक है, वो ही पराक्रम कर सकता है; उसी के नाम से पत्थर तैर सकता है। पत्थर का तैरना ये पुरुषार्थ का सबसे बड़ा प्रमाण है। इतना बड़ा सेतु और वो भी बंदर जैसे चंचल जाति से करवाया। और सेतु बना। आज भी ‘नासा’ से जो तस्वीरें मिलती हैं, उसमें रामसेतु के कुछ अवशेष दिखते हैं।
रामचरितमानस का ये प्रसंग मुझे बहुत अच्छा लगता है कि पहले सेतु बनाया गया। भगवान राम गए तो युद्ध करने के लिए थे लेकिन पहले सेतु बनाया। ये भारत का विचार है कि पहले सेतु बनाया जाए फिर यदि करना पड़े तो संघर्ष किया जाए। सीधा संघर्ष नहीं। पहले जोड़ो। पहले एक्ये। ये भूमि एकता की है। पहले जोड़ा जाए फिर यदि संघर्ष करना पड़े तो किया जाए। ये बहुत ही प्रेरणादायक बात है कि सेतुबंद पहले होना चाहिए।
तो भगवान राम पराक्रमी हैं। वो ही ‘रामो विग्रहवान धर्म साधु सत्य पराक्रम।’ अनंत गुण हैं भगवान राम में। वो आदर्शों के भंडार हैं। रावण आदि का निर्वाण करके भगवान राम जब लंका विजय से लौटे और विमान सरजू के तट पर उतरा तो सबसे पहले अयोध्या की मिट्टी को राम ने सिर पर लगाया। प्रसिद्ध वक्तव्य है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अपने जन्म देनेवाली माँ और अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक है। उस समय भगवान राम के कुछ वचन हैं कि ‘अति प्रिय मोहि यहां के बासी।’ अयोध्या के लोग मुझे बहुत प्रिय है। मैं अयोध्यावासियों को बहुत चाहता हूं।वाल्मीकिजी ने जब पूछा नारदजी को कि ऐसा कौन इस पृथ्वी पर पुरुष है? इसमें उसने बड़ी नोंध दी है। और उसमें केवल राम ही सबकी दृष्टि में आये हैं। तो-
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।
सोइ रामु व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी।।
पुनः एक बार … श्री रामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये। श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये। जय सियाराम।

प्रस्तुति: राज कौशिक

Related Posts

Scroll to Top